महागठबंधन का बड़ा दांव: सरकार बनने पर अतिपिछड़े वर्ग के बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाने का वादा

महागठबंधन का बड़ा दांव: सरकार बनने पर अतिपिछड़े वर्ग के बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाने का वादा


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बिहार की राजनीति में एक बार फिर से सामाजिक न्याय और जातीय समीकरणों की नई पटकथा लिखी जा रही है। हागठबंधन ने बड़ा ऐलान करते हुए कहा है कि अगर उनकी सरकार बनी, तो उपमुख्यमंत्री पद की कुर्सी एक अतिपिछड़े वर्ग के बेटे को दी जाएगी। इस घोषणा ने राजनीतिक गलियारों में हलचल पैदा कर दी है। यह कदम न केवल सत्ता की राजनीति को प्रभावित करेगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि बिहार की भावी राजनीति किस दिशा में जाएगी।


इस वादे के ज़रिए हागठबंधन ने सीधे तौर पर सामाजिक न्याय की लड़ाई को फिर से हवा देने की कोशिश की है। बिहार में आज भी लाखों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो खुद को सत्ता और संसाधनों से वंचित महसूस करते हैं। ऐसे में जब कोई गठबंधन खुले तौर पर कहता है कि वह एक अतिपिछड़े वर्ग के नेता को शीर्ष पदों में से एक पर बैठाएगा, तो यह संदेश केवल एक वर्ग तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे राज्य में एक राजनीतिक लहर पैदा करता है।


विश्लेषकों का मानना है कि हागठबंधन की यह घोषणा एक सोची-समझी रणनीति है। चुनावी साल में इस तरह की बातें केवल भावनात्मक जुड़ाव के लिए नहीं होतीं, बल्कि इसके पीछे ठोस वोट बैंक साधने की कोशिश होती है। अतिपिछड़ा वर्ग बिहार की आबादी का बड़ा हिस्सा है, जो अब तक सत्ता में निर्णायक भागीदारी से वंचित रहा है। इस वर्ग को अपने साथ जोड़ना किसी भी गठबंधन के लिए एक मजबूत आधार तैयार करने जैसा है।


हालांकि, इस घोषणा के बाद राजनीतिक विरोधियों ने भी हागठबंधन पर निशाना साधा है। उनका कहना है कि यह एक चुनावी स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि अब तक बिहार की राजनीति में इस तरह के कई वादे किए गए, लेकिन जब सरकार बनी, तो हाशिए पर खड़े लोगों को फिर से दरकिनार कर दिया गया।


इस वादे के बाद सबसे बड़ा सवाल यह भी उठता है कि हागठबंधन के पास वह चेहरा कौन है, जिसे वह उपमुख्यमंत्री पद पर बैठाना चाहता है? क्या यह चेहरा नया होगा या कोई ऐसा नेता जिसे अब तक पृष्ठभूमि में रखा गया था? जनता अब नाम जानना चाहती है, और साथ ही यह भी देखना चाहती है कि यह केवल एक वादा तो नहीं, जिसे चुनाव के बाद भुला दिया जाएगा।


साथ ही, यह भी उल्लेखनीय है कि हागठबंधन की इस रणनीति से बीजेपी और एनडीए के परंपरागत वोट बैंक पर भी असर पड़ सकता है। खासकर वे तबके, जो अब तक भाजपा के साथ जुड़ते रहे हैं, यदि उन्हें लगे कि उनके समाज को दूसरी ओर ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलेगा, तो उनका रुझान बदलना तय है।


बिहार में जातीय राजनीति नई बात नहीं है, लेकिन अब यह ज्यादा परिष्कृत और रणनीतिक होती जा रही है। अब सिर्फ जाति का नाम लेना काफी नहीं, बल्कि उसे सत्ता में भागीदारी भी देनी होगी। हागठबंधन का यह ऐलान इस दिशा में एक कदम तो ज़रूर है, लेकिन असली परीक्षा तब होगी जब सत्ता हाथ में होगी।


क्या यह वादा वाकई पूरा होगा? क्या बिहार की राजनीति एक नया सामाजिक संतुलन गढ़ पाएगी? और क्या अतिपिछड़े वर्ग को वह प्रतिनिधित्व मिलेगा, जिसकी वह वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे हैं? ये सवाल फिलहाल अनुत्तरित हैं, लेकिन इतना तय है कि इस घोषणा ने बिहार की चुनावी राजनीति में एक नई बहस को जन्म दे दिया है।

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